What is the criticism of Indian media on the basis of value system ?
भारतीय मीडिया की मूल्यों के आधार पर आलोचना का क्या कारण है?
The criticism of electronic media can be done on the various parameter. Value system is one of them. The electronic media used to sue the value system which is not connected with the ground reality within the Indian society. They tried to re-present such an artificial value system, which is nothing to do with the natural 80. Below are some of the value system on which we can criticise the electronic media.
मूल्य एक ऐसी चीज़ है जो समाज को जोड़कर रखती है। मुल्क-बोध व्यक्ति को सफलता देता है। साथ में ही एक-दूसरे से जोड़ कर रखता है। मूल्य-बोध हमेशा इंसान को सकारात्मक बनाए रखता है। समाज की अच्छाइयों में आस्था बनाए रखता है। मूल्य-बोध हमेशा मैं के जगह पर हम कि बात करता है।सबका साथ सबका विकास मूल्य-बोध का ही प्रतीक है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जिस तरह से कार्यक्रमों को दिखाया है उससे कहीं न कही है भारतीय समाज के मूल्य-बोध में दरार पड़ रहा है। कई ऐसे चीज़ें जो कि भारतीय समाज के लिए आसाधारण थे वह समान होते दिख रहे हैं। इसमें कोई श़क नहीं कि समाज जिस दिशा में बढ़ रहा है वहाँ मूल्यों की बातें करना बेमानी है। सीधा-सीधा जो बात है वो यही की मूल्य अगर आगे बढ़ाने में बाधा आए तो उसे भी दरकिनार कर देना चाहिए।
मूल्य के आधार पर भारतीय मीडिया की आलोचना निम्न आधार पर बनती है-
Promoting Individuality व्यक्तिवाद को बढ़ावा देना
Breakdown in relationship संबंधों में अलगाव
Materialistic culture भौतिकवादी संस्कृति
Nuclear family system एकल परिवार संरचना
Pragmatic approach व्यावहारिक दृष्टिकोण
Economical view आर्थिक दृष्टि
Haste culture जल्दबाजी की संस्कृति
Digital Expression डिजिटल अभिव्यक्ति
Show off दिखावा
Obsession with image छवि के प्रति सनक
Promoting Individuality-
Electronic media with the presentation of content promotes individuality. Individuality is a concept in which individual is considered as a epitome of success and growth. When somebody achieve growth and success in their life, then they think that only due to his individual effort he had raised to that place. This means that indirectly he has ignored the contribution of family and society in his growth. Again, this concept says that for all the happiness and pleasure individual is the unit. There is no value of society, friend, family in enjoying the happiness and pleasure in the life. The electronic media by its program promotes this concept in the society. This is the way by which the brand and the media can can easily target potential customer. The individual can entice by offer, coupon code and all gimmick of marketing. Whereas targeting the group is difficult one so individuality is something which is helpful for this capitalist way of developing the society.
व्यक्तिवाद को बढ़ावा देना-
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस तरह के कार्यक्रम को प्रस्तुत करती है जो की व्यक्तिवाद को बढ़ावा देता है। व्यक्तिवाद वह अवधारणा है जिसमें व्यक्ति ही इकाई माना जाता है। व्यक्ति को इकाई मानने का सीधा और सरल आशय यह है कि विकास और सफलता के पैमाने में व्यक्ति ही है। सीधे और सरल शब्दों में समझें तो जो भी किसी ने अपने जीवन में लक्ष्य हासिल किया है या फिर सफलता अर्जित किया है उसमें परिवार, समाज और अन्य लोगों का कोई योगदान नहीं है। यह उसके अपनी मेहनत और परिश्रम का प्रतिफल है। व्यक्ति को समझाना किसी के लिए आसान है लेकिन अगर समूह में समझाना है तो थोड़ा मुश्किल होगा। व्यक्ति को छूट, ऑफ़र, कूपनकोड आदि के द्वारा प्रलोभित करके कोई भी चीज़ बेचना आसान है। इसलिए व्यक्तिवादी सोच मीडिया के साथ ही पूंजीवादी व्यवस्था के लिए अच्छी है।
Breakdown in relationship-
Electronic media is full of such a program in which divorce and separation is common event. We better know that Indian society and culture is known for strong boundation within the relationship and the family. But the electronic media which glamorise the western approach of life shows divorce and separation in such a simple manner that with this decision individual can enhance his experience of life. He can get out of all of his misery. But media forget about the Indian way of living and facing the difficulty of life. This thing has has remained identity of Indianness is from time immemorial. That's the reason that Indian mindset and Indian psychic is one of the strongest in the world.
संबंधों में अलगाव-
भारतीय मीडिया इस तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत करता है जिसमें बहुत आसानी से संबंधों में अलगाव और डाइवोर्स जैसी बातें होती है। ग़ौरतलब है कि भारतीय समाज और संस्कृति में इस तरह की चीज़ें असामान्य घटना है। पश्चिम के मुल्कों में माना कि यह काफ़ी सरल और सहज प्रक्रिया है पर भारतीय समाज में अभी तक इसे स्वीकार नहीं किया गया है। आज भी भारतीय परिवार और संबंध बहुत मज़बूती से एक- दूसरे से जुड़े होते हैं। भारतीय मीडिया इस प्रकार से दिखती है की संबंधों से बाहर आएंगे तो जीवन बहुत अच्छा हो जाएगा और फिर से अगले संबंध के लिए तैयार हो जाएंगे। यानी यहाँ भी वस्तुवादी नज़रिया। आसान और सरल तरीक़े से देखा और समझा जा सकता है कि यह भारत के मूल्यों के ख़िलाफ़ है।
Materialistic culture-
Materialistic culture is a culture which represents the importance of material. According to this culture, each and every thing has MRP. Once the people has pinnacle capacity paying capacity, then he can avail the all leisure and luxury of the life. It means that each feeling is related to. Material and for this there is an fix rate. The person who has the paying capacity he can get maximum feeling in his life. This approach is nothing but 1 feet for all solution. This is related to mass production and mass consumption. Would each and every oc okay Asian okay Jan there is some brand to make the occasion special. The people hardly remember any day except some big festival day but the media and advertisement make the people know that what is the importance of any particular day and how he can express his feelings with the help of some of the product.
भौतिकवादी संस्कृति-
भौतिकवादी संस्कृति अत्याधिक उपभोग पर बल देती है। यह संस्कृति उस सोच का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें कि तमाम सफलता और सुख-सुविधा का आधार वास्तु को माना जाता है। वस्तुओं का सेवन और उनका प्रयोग ही जीवन में सुखों को विस्तार देता है। यह सोच इस बात को स्थापित करती है कि हर ख़ुशी की क़ीमत होती है अगर कोई ख़र्च करने में सक्षम है तो वह जीवन की हर ख़ुशी प्राप्त कर सकता है। इसका एक मतलब यह भी है कि रिश्तों में मज़बूती का आधार भी वस्तुओं से जुड़ा है जिसे ऊँची क़ीमत चुकाकर ख़रीदा जा सकता है। जितने बड़ी ब्रांड होंगी रिश्तों में उतनी मज़बूती आएगी। अब सचाई इसमें कितना है यह तो नहीं पता लेकिन कम से कम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर यही दिखता है। विज्ञापन भी यही दिखता है। शायद यह सही भी हो पर भारतीय समाज के यह मूल नहीं रहे है।
Nuclear family system-
India is known for its composite culture. Indian family is known for its joint nature. It means that all the brothers and their families along with father and four father used to live together. They used to share happiness and problem together. It is the way through which each and every member of the family is connected to each other. Ultimately, it provides growth and stability to each and every member irrespective of his physical and mental capabilities. This is way through which India has covered a large part of its history. With the advent of this modern media, the nature of program and advertisement is such that all the happiness, all the prosperity will come once the family dissociate and become nuclear one. One solution to all of the problem is nuclear family concept. Here one is answerable to himself and his wife and his sibling only. Again, this is not as par with Indian value system.
एकल परिवार संरचना-
भारत को इसकी समृद्ध संस्कृति से जाना जाता है। यहाँ पर परिवार के कई पीढ़ियां एक-साथ रहते हैं। जिसमें कई भाई के साथ माँ पिताजी, दादा दादाजी एक साथ एक छत के नीचे रहते है। इसी को ही संयुक्त परिवार कहा जाता है। इसका फ़ायदा यह होता है कि परिवार में कोई कमज़ोर हो या बहुत बुद्धिमान न हो वह भी जीवन में स्थायित्व और आधार पाता है। मीडिया पर जिस तरह के कार्यक्रम दिखाए जाते हैं और जिस तरह के विज्ञापन प्रसारित होते हैं उसमें संयुक्त परिवार की यह धारणा बिलकुल छिन्नभिन्न प्रतीत होती है। ज़्यादातर कार्यक्रमों में पति-पत्नी और बच्चे को ही दिखाया जाता है। इस तरह से मीडिया एकल परिवार की अवधारणा को बढ़ावा दे रहा है। इस तरह से चीज़ों को रखा जा रहा है मानो एकल परिवार ही हर समस्या का समाधान है।साथ ही साथ आगे बढ़ने का रास्ता एकल परिवार ही है। यह सोच और अवधारणा बाज़ारवाद और पूंजीवाद के लिए तो अच्छा है पर भारतीय मूल से यह मेल नहीं खाता है।
Pragmatic Approach-
Pragmatic view point is approach to life when one keeps relationship with someone only for the use. This type of approach is good for business but is not good for social connectivity. We used to have a relationship with other for the sake of love, affection and another feeling also. Where no usage point of view is there. Pragmatic view point, says that if any relationship, friendship did not give you return then it is of no use. Each and every thing will be calculated by the output. In simple words, the return which anybody gets when he spent time and money. Pragmatic view point is killing the cohesion of society. This point view point is making people to confine to his purpose only. If his purpose gets fulfilled then each and every thing is good. If his purpose is not solved, then all thing is worse. The media is establishing this viewpoint in the society. The programme format and way they are presented, this approach of the life is going day by day stronger. Practical reality is that this viewpoints is the reason for depression and anxiety for the many people. They are not happy with what already they are having, but they striving for something which which he don't know.
व्यावहारिक दृष्टिकोण-
व्यावहारिक दृष्टिकोण वह दृष्टिकोण है जिसमें इस बात पर ज़ोर दिया जाता है बिना मतलब कहीं भी समय और संसाधन ख़र्च नहीं करना चाहिए। जब तक कि उसका कुछ फ़ायदा न हो तब तक उसमें धन और समय बर्बाद करने का कोई मतलब नहीं है। यह सोच व्यापार के लिए तो अच्छा है पर सामाजिकता के नज़रिए से यह अवधारणा एकांतवास में ले जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं छोड़ता। मीडिया इस तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं जिससे की इस तरह के दृष्टिकोण दिन प्रतिदिन मज़बूत होता जा रहा है। हर किसी को क्या चाहिए ये तो नहीं पता लेकिन कुछ ज़रूर चाहिए। तभी वह संबंधों में आगे बढ़ेगा तब भी वह मिलना-जुलना चाहेगा। हम सामाजिकता में काफ़ी चुनावी हो गया गये है। हम लोग उसी के साथ संबंध रखना चाहते हैं या मिलना-जुलना चाहते हैं जहाँ से हमें भविष्य में फ़ायदा होता हुआ दिखता है। अगर फ़ायदे का नज़रिया नहीं होता है तो अक्सर देखा गया है कि लोग संबंधों में बचते हुए दिखते है। इसका यह भी मतलब है कि लोग संबंध में वही तक आगे बढ़ते हैं जहाँ तक उनका मतलब साधता है। एक बार मतलब पूरा हुआ नहीं कि व्यक्ति पर पहचानने से भी इनकार कर देता है। यह बाज़ारी संस्कृति का ही परिणाम है जो मीडिया द्वारा बनाया जा रहा है।
Economical view-
Economical viewpoint is the way we decide and judge about each and everything. Judgement is based on economy according to this view point. We used to judge over action only with the profit it gives in the life in terms of money. It is the way we used to judge other one not with their character or natured but with their income. Tons of content are there over digital media and electronic media which used to present the role model of society as the person who is earning in crores. This economical view is not only related to the success but also to the identity of the people in the society. Hardly matter what is the way the person has follow to achieve that figure. Things which matter that he has achieved a target. The society is full of such example where each and everybody knows how anybody has achieved the crorepati status in the society, in spite of that when the same person invites other ones, then each and every people who used to criticise the way he has earned in back, Once they faces the crorepati they start praising and applause their achievement. This is the dark reality of society that economical figure matters most. Rest thing is nonsense.
आर्थिक दृष्टि-
आर्थिक दृष्टिकोण वह दृष्टिकोण है जिसमें हर चीज़ का मूल्यांकन हम अर्थ की दृष्टि से करते हैं। कोई कितना सफल है या असफल है इसका आधार आर्थिक दृष्टिकोण ही होगा। यहाँ तक कि हम अपने जीवन का मूल्यांकन भी इसी दृष्टिकोण के आधार पर करते हैं। यह बहुत कम मायने रखता है किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व क्या है, उसकी प्रवृत्तियों, उसका स्वभाव क्या है। अगर वह अच्छा-ख़ासा कमा रहा है तो फिर उसकी प्रवृत्तियों पर कोई चर्चा नहीं होगी। उसका कमाना ही उसके लिए चरित्र का प्रमाण पत्र होता है। यह सोच बाजारवाद की ही देन है जिसकी संचालक और कोई नहीं मीडिया ही है।मीडिया में ऐसे कई सारे कार्यक्रम होते हैं जिसमें करोड़पति कैसे बने का रास्ता बताया जाता है। वहाँ पर उन लोगों को ही नायक के तौर पर दिखाया जाता है जो कम समय में करोड़पति बने हैं। यह बहुत कम मायने रखता है कि वह किस रास्ते से बने हैं। इस तरह के उदाहरण अक्सर समाज में देखने को मिलता है की पीठ पीछे लोग किसी के करोड़पति होने के सारे रास्ते जानते हैं और उसके आधार पर उसकी बुराई भी करते हैं पर जैसे ही उस आदमी के सामने होता हैं तो लोग उसकी तारीफ़ करने लगते हैं। उसकी सफलता का गुणगान करने लगते हैं। यह नजरिया ही वर्तमान में सबसे मज़बूत नज़रिया है। जबकि यह दृष्टिकोण भारत के मूल्यों से मेल नहीं खाता है।भारत का समाज चारित्रिक गुणों के लिए जाना जाता है।अर्थ उसका एक पक्ष मात्र है ना की सम्पूर्ण पक्ष।
Haste culture-
Haste culture is something which establish the fact that we have to get each and everything very hurry. The success is larger and bigger when it is achieved in minimum possible time. This culture is also said to be fast food culture. Where the eater is related to test and time without thinking about health factor. We used to present the program where such role model is presented which has gained so called ‘success’ in minimum possible time or it can be said that record minimum time. Even the news format like this hundred news in five minute represent the same phenomena. This is the reason due to which people are losing patience the life. They want each and everything at the speed of light. It looks ridiculous but truth is this only.
जल्दबाजी की संस्कृति-
जल्दीबाजी की संस्कृति ऐसी संस्कृति है जिसमें हर चीज़ हम कम से कम समय में प्राप्त करना चाहते हैं। इस संस्कृति के तहत यह मानना है कि कोई भी सफलता बड़ी हो जाती है जब वह कम से कम समय में प्राप्त की जाती है। इस संस्कृति को फ़ास्ट फ़ूड संस्कृति भी कहा जाता है। जिसमें कि व्यक्ति स्वाद का तो ख्याल रखता है लेकिन स्वास्थ्य के बारे में भूल जाता है। भारतीय मीडिया में जिस तरह से कार्यक्रमों को दिखाया जाता है पाँच मिनट में सौ ख़बरें जानते है। जो रोल मॉडल को वहाँ पर देखया जाता है जो कम से कम समय में बड़ी उपलब्धि हासिल किए हो। यह सब मिलकर एक ऐसी संस्कृति और समाज का निर्माण कर रहा है जहाँ पर की कम समय में ही बड़ा कुछ करने का दबाव बना होता है। यही संस्कृति जो है वह जल्दबाज़ी की संस्कृति है। इस संस्कृति की वजह से जब आप देखेंगे तो आप पाएंगे कि लोग अपना धैर्य खो रहे हैं।छोटी बातों पर ही उन्हें बहुत जल्दी ग़ुस्सा आ जाता है। यह सब इस संस्कृति की वजह से ही हुई है। कम उम्र में ही लोग नाम पैसा शोहरत सब चाहते हैं। यह चाहत ही वह अंत कुँआ है जो समाज को ऐसी दिशा में लेके जा रहा है जहाँ रोशनी का नामो-निशान नहीं है।
Digital Expression-
Digital expression has become norm now a day. Each and everybody has something to show, something to tell in front of the whole world. Of course this is not bad in nature. The problem starts when anybody become passionate with the audience engagement. When not getting enough like, comment makes depressed. This is the problem with the digital experience. To get audience engagement they are always try to experiment with their life and in this experiment, some time we have witness that youth lose their life also. Excessive expression sometimes creates problem for anybody. He became disconnected with the real world and excessive presence on virtual world. It's sort of addiction type is there due to excessive digital expression. Now it is the power of mass media has come into the hands of common people but the question is not everyone is able to handle it.
डिजिटल अभिव्यक्ति-
अभिव्यक्ति का बिलकुल नया हथियार आम लोगों को मुहैया हुआ है और यह है डिजिटल अभिव्यक्ति। एक तरह से कहें तो जनसंचार की ताक़त अब आम आदमी को मुहैया हो चुकी है। जिसके द्वारा वह कुछ ही मिनटों में पूरे विश्व के साथ संवाद कर सकता है। यही वजह है कि हर आदमी को कुछ दिखाने और बताने की आदत हो चली है। एक हद तक अगर इसे संयमित तरीक़े से प्रयोग किया जाए तो अच्छी बात है। अत्याधिक डिजिटल उपस्थिति कई बार स्वास्थ्य और समाज के लिए हानिकारक हो सकती है। हमने देखा है कई ऐसे युवाओं को की वह लाइक और कॉमेंट प्राप्त करने के लिए कई ऐसे कारनामे करते हैं जो जान और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। भारतीय मूल्यबोध में कई ऐसी चीज़ें थी जो बताने और दिखाने को नहीं थी। समाज ऐसी दिशा में आगे बढ़ रहा है जहाँ पर इस समस्या का हल होता तो फ़िलहाल नहीं दिख रहा है।
Show off-
Show off culture is a culture in which visualisation of lifestyle, dress up becomes part of life. Representation over the digital media has a meaning in the life. The updation of daily life related to fooding, roaming becomes routine part of life. This is nothing but show off culture. Only to show the people sometimes you go and shop for something. You eat somewhere on only to post pictures and videos on the social media. This type of things were not common according to the value system of the Indian society. But now this has become norms of the day.
दिखावा-
भारतीय समाज में कुछ चीजें दिखावा का हिस्सा नहीं रही है जैसे खानपान, पैसा, शरीर और निजी जीवन। वर्तमान समय ऐसा हो चला है की हम यह तय कर ही नहीं पाते हैं की क्या दिखाना है और क्या नहीं। हर घटनाक्रम तब तक मायने नहीं रखता जब तक हम उसे सार्वजनिक करके कुछ तारीफ़ नहीं बटोर लेते है। एक तरह से यह दिखावा संस्कृति है। जिसमें हर आदमी इस बात को स्थापित करने में लगा है कि वह सबसे ज़्यादा ख़ुश हैं। सबसे ज़्यादा मस्ती कर रहा है। उसके पास सबसे ज़्यादा उपभोग के सामग्री है। यह दिखावा करने की परंपरा ही वर्तमान समय का ट्रेंड बन चुका है। घर का वह हिस्सा जो अभी तक किसी बाहरी के लिए सुलभ नहीं था अब वो लाइव हो जाता है। इसके अपने नुक़सान है। हम महज़ कुछ चीज़े इसलिए ख़रीदते हैं या कहीं हम इसलिए खाते हैं कि उसकी तस्वीर और वीडियो को मीडिया के द्वारा लोगों तक पहुँचा पाए। भारतीय मूलबोध में इस तरह की चीज़ें पहले से नहीं रही है यह आधुनिक मीडिया के आगमन के बाद ही शुरू हुई है।
Obsession with image-
Nowadays, people has become excessive obsessed with their body shape and figure. They have become exceptionally careful about their appearance. Skin colour, hairstyle and dress colour should be of designer one. The thrust of each and everyone is to look dashing and unique one. The problem is not with the look if you have it. The problem lies when you don’t have it. You become obsessed to get that so called ‘defined’ look at any cost. The Indian value system emphasis upon the healthy life, healthy body with healthy mind also. It has to nothing do with look bodyweight and colour which are outer form of body. But now the things has changed and now outer factor has become prominent part of the life. The media is responsible for this. You take example of any television programme, the anchor, presenter, actor, actress, they don't seems to be the part of masses. There look, their dress are so attractive and impressive that common man just attach to it. Media does not represent the reality of society. The real face of society is not there on the media. Only artificial things are there and that's become our role model.
छवि के प्रति सनक-
वर्तमान समय में लोगों में अपनी छवि को लेकर इस तरह से आकर्षण जागी है शायद ही कभी इतिहास में ऐसा रहा हो। हर आदमी को ऐसा शरीर चाहिए, ऐसे बाल चाहिए, इस तरह के रंगरूप चाहिए जो सबसे अलग हो। अब जिसके पास है उसके लिए तो कोई दिक़्क़त नहीं है। लेकिन जिसके पास नहीं है वह इसे पाने के लिए जिस तरह से बैचेन हो बैठा है वह कहीं से भी जायज़ नहीं कहा जा सकता है। जिस तरह से मीडिया पर कार्यक्रम आते हैं और उस कार्यक्रम में जिस तरह के नायक-नायिका होते हैं। वह समाज के साधारण से दिखने वाले लोग के बीच से नहीं होते। यही वजह है कि उसी तरह की छवि सबको चाहिए। कुल मिलाकर अगर कहें तो मीडिया समाज के आम चेहरों को जगह नहीं देता है। कुछ ख़ास रंग-रूप दिखने वाले लोगो को ही जगह देता है।
At the last it can be concluded that Indian value system has remain very strong in the past as well as in present also. If Indian media and society make arrangement with Indian value system then this is good for the society as a whole. It will decrease the anxiety and friction in the society. When society is in a state of peace, then automatically it will promotes creativity, growth and development. Thank you!
अंत में यही कहा जा सकता है कि भारतीय मूल्यबोध बहुत ही मज़बूत रहा है और वर्तमान में भी है। अगर भारतीय मूल्य बोध के साथ समाज और मीडिया तालमेल बैठाती है तो यह बहुसंख्यक समाज के लिए हितकारी है। समाज में व्याप्त बेचैनी और तड़प इससे कम होगा। एक बार जब शांति आती है तो उसमें सिर्फ़ सकारात्मक काम ही होता है। धन्यवाद!